22 September, 2008

एक गर्भपात का क्रेडिट ले रहा है नारी ब्लॉग !

मेरे शहरवासी ब्लॉगर्स की शिकायतें मिलती रहीं हैं कि ब्लॉगवाणी में ब्लॉग जुड़वाने में बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं। लेकिन आज शाम को एक साथी ने ख़बर दी कि आपका ब्लॉग, ब्लॉगवाणी में जुड़ गया है तो घोर आश्चर्य हुया। बिना औपचारिकता निभाये ये कैसे हुया नहीं मालूम।

आप सभी टिप्पणीकर्तायों को धन्यवाद, जो मुझे हौसला दिया। एक बात अवश्य कहना चाहूंगा कि अनाम रहा कर टिप्पणी न दें। मैं मानता हूँ कि अनाम रहने से बहुत सारे बंधनों से मुक्ति मिल जाती है, लेकिन ख्याल रखें कि झूठी बातें/ आक्षेप न हों। ज़रूरत पड़ने पर उनकी तमाम जानकारियां (डाक पते सहित) एक क्लिक पर हासिल हो रहीं हैं। जैसे कि रचना के नाम से किसी अनाम ने सूचना दी है कि मेरा ब्लॉग, ब्लॉगवाणी में जुड़ गया है, ये मानव कानपुर से पधारे हैं और रंजना जी को जवाब देने वाले मानव गाजियाबाद से आए। विज्ञान बहुत उन्नति कर चुका है, हमारी, आपकी कल्पना से अधिक। आप अनाम रहिये, सार्थक वार्तालाप कीजिए, कम से कम मैं तो नहीं रोकूंगा आप लोगों को!

रंजना जी की सारगर्भित टिप्पणी के लिए धन्यवाद। लेख का जो अंश उधृत किया है उसका शेष भाग जल्द ही आयेगा।

रचना जी ने इस ब्लॉग का क्रेडिट लिया है। हर अच्छी चीज का श्रेय लेने की सहज मानवीय प्रवृत्ति होती है। मेरा यह कहना है कि उन्होंने एक अपरिपक्व-गर्भ रूपी विचार (ब्लॉग) का गर्भपात करवा दिया है। मेरी कुछ और ही कल्पना थी इस ब्लॉग की पहली पोस्ट के लिए। शायद प्रसव पीड़ा के बाद जनमा ब्लॉग कुछ और बेहतर होता।

21 September, 2008

पुरुष दर्प को सहलाती आज़ाद नारी

ब्लॉग की दुनिया में नया नहीं हूँ मैं। फर्क सिर्फ इतना है कि मेरा अपना ब्लॉग नहीं था अब तक। हालांकि इस ब्लॉग को शुरू करते हुए मेरे मन में पहली पोस्ट की कुछ कल्पना थी। लेकिन इस बीच ही रचना जी ने कटाक्ष किया कि आपका तो ब्लॉग ही नहीं है, जब हो तब टिप्पणी करना!! कसमसा कर रह गया। इसी के चलते उन्होंने मेरी अगली टिप्पणी को स्थान नहीं दिया। तब लगा, ऐसे तो कोई भी मना कर सकता है टिप्पणी देने से! उधेड़बुन में था कि एक मित्र का फोन आया और बातों-बातों में, नंदकिशोर नौटियाल जी द्वारा संपादित साप्ताहिक पत्र 'नूतन सवेरा' का जिक्र करते हुए एक नज़र मारने का अनुरोध किया। कुछ समय बाद ख़ुद ही ला कर दे भी दिया।

मैंने नज़र मारी, पाया कि डॉ कन्हैयालाल नंदन सलाहकार सम्पादक हैं। राजम नटराजन पिल्लै लिखित मुख्य लेख को पढ़ा, अच्छा लगा। सोचा लिंक दे दूँ, बाक़ी साथी भी पढ़ लेंगे। लेकिन पाया कि वह लेख यूनीकोड में मौजूद नहीं है उनकी वेबसाईट पर। फिर भारत सरकार द्वारा सीडी में प्रदत्त 'परिवर्तन' सोफ्टवेयर का प्रयोग करते हुए उसे यूनीकोड में बदल लिया। इसके साथ ही पाया कि कॉपीराईट सम्बंधित कुछ लिखा नहीं गया है। तात्कालिक रूप से इसी से शुरू किया जाए, यह सोचकर उल्लेखित लेख के कुछ अंश साझा कर रहा हूँ।

पुरुष दर्प को सहलाती आज़ाद नारी
-राजम नटराजन पिल्लै

19वीं सदी का हिंदुस्तान पश्चिमी औद्योगिक क्रांति, रेनेंसाँ के वरदान आधुनिक विज्ञान, टेक्नोलॉजी के नये-नये अविष्कारों, आवागमन के साधनों, संप्रेक्षण के माध्यमों से अभिभूत हो रहा था, लेकिन साथ ही परेशान भी हो रहा था कि इन सबके साथ ही देश में आ रही थी पश्चिमी शिक्षा, पश्चिमी रहन-सहन और पश्चिमी सोच। अपनी सभ्यता को हज़ारों साल प्राचीन और अपने धर्म को 'सनातन' कहने वाला देश अचानक जैसे एक अंधड़ में फंस गया था, पैर उखड़ रहे थे, टोपी-पगड़ी सरे-बाज़ार उछाली जा रही थी, क्योंकि अनमोल विरासत उसकी लौह-भित्तियों से संरक्षित समाज व्यवस्था सरासर विषमतामूलक थी, अन्यायपूर्ण थीं, अमानवीय थी। समाज का लगभग आधा हिस्सा स्त्री समुदाय अशिक्षित, असहाय, अपाहिज बना दिया गया था और बहुसंख्यक बहुजन समाज प्राथमिक मानवीय अधिकारों से भी वंचित रखा गया था। पश्चिम का व्यक्तिवाद, लोकतांत्रिक सोच, समतावादी न्याय व्यवस्था, शिक्षा प्रणाली, उसका विशाल, व्यापक, उन्मुक्त प्रभावशाली साहित्य और सबसे बढ़कर उसका विश्वव्यापी साम्राज्य सूरज के उजाले की तरह यथार्थ था, आंखों के आगे था। 'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या' कहकर या 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' का आत्म संतोषी प्रवचन देकर भारतीय समाज को दीमक की तरह चाटकर कमज़ोर कर रही अशिक्षा, अंधविश्वास, संकीर्णता के सत्य को 'स्वर्ण ढक्कन' से अब और ढंककर नहीं रखा जा सकता था।

सो, बड़ी आशंकाओं के साथ, दो कदम आगे बढ़ते हुए और छ: कदम पीछे हटते हुए भारतीय समाज के मनीषी, कर्मठ सुधारक पश्चिमी सभ्यता की नियामतों को चुन-चुनकर, अंश-अंश में अंगीकार करने के लिए बाध्य हो रहे थे। औरतों की ही हालत सबसे ज्यादा शोचनीय थी और उन्हीं के संदर्भ में पश्चिम और पूरब का नितांत अलग नज़रिया भारतीय मानस को अपूर्व अंतर्द्वद में डाले हुआ था। भारत में इससे पहले भी व्यापारियों के तौर पर, हमलावरों के तौर पर विदेशी आये थे। उनका ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, धर्म आया था। यहां तक कि खान-पान और रहन-सहन की नयी-नयी चीजें भी आयी थीं, लेकिन उन अधिकांश विदेशियों के साथ उनकी औरतें नहीं आयीं थीं और उससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि औरत के प्रति वे लोग भी लगभग वही सोच नज़रिया रखते थे जिसे आज हम 'मध्ययुगीन सामंतवादी' नज़रिया कहते हैं। मध्ययुगीन भारत को सिर्फ़ इतना ही करना था कि अपनी स्त्रियों को शारीरिक तौर पर दुश्मन, विधर्मी के हाथों में पड़ने से बचाना था। सो, अपनी औरतों की यौनशुचिता को बरकरार रखने के लिए भारतीय समाज ने बाल-विवाह, सती-जौहर, विधवा विवाह पर कड़ा नियंत्रण रखते हुए धर्मच्युत का आजीवन बहिष्कार जैसे कारगर कदम उठाये और संहिताबध्द कर दिया कि कौमार्यवस्था में पिता, यौवन में पति और बुढापे में पुत्र ही स्त्री का संरक्षक होगा।

स्त्री में इतनी अर्हता, पात्रता नहीं है कि वह स्वतंत्र रह सके। इतने-इतने परकोटों में 'असूर्य पश्या' स्थिति में रखी गयी स्त्री का कोई सार्वजनिक जीवन ही जब नहीं था तो फिर उसके लिए अपने बनाव-सिंगार, कंघी-चोटी-मिस्सी को लेकर बहुत परेशान होने की ज़रूरत नहीं थी। चतुर-सुजान दूरंदेशी पुरुषों ने यहां तक विधान कर दिया था कि यदि किसी स्त्री का पति प्रवास में हो तो उस स्त्री को केश नहीं संवारने चाहिये, आभूषण नहीं पहनने चाहिये, पान नहीं खाना चाहिये। यानि 'जिय बिनु देह, नदी बिनु बारी' की तरह पति के बगैर पत्नी कुलटा है, कुल बोरी है, उसकी पतिनिष्ठा, सतीत्व, अविश्वसनीय है तथा बार-बार अग्नि परीक्षा लेकर ही उसकी तसदीक की जा सकती है। सुखद बात यह थी कि स्त्री के संदर्भ में सभी धर्म, धर्म-संस्थान, न्यायपीठ एकमत थे। कहीं डायनों को जिंदा जलाने का विधान था तो कहीं आग में परीक्षण करने का, तो कहीं पत्थर मार-मारकर उसे लहू-लुहान करने का। लोकप्रिय कथा कहानियां भी इस पर एकमत थी, तोता-मैना की कहानियां भी वही कहती थीं जो 'अलिफ़ लैला' की कहानियां कहती थीं। यही कि 'तिरिया चरित्र' को बड़े-बड़े देवता, मुनि भी बूझ नहीं सकते। बेचारे सीधे-सादे पुरुष की क्या बिसात, सो स्त्रियां 'ताड़न की अधिकारी' हैं, उन्हें ताड़ना देते रहना चाहिये, पैर की जूती समझना, नरक की खान समझना चाहिए!

कितना बढिया सब कुछ चल रहा था। बरस-दर बरस, सदी-दर-सदी! मिस्र के पिरामिडो में दफनायी कालजयी ममियों की तरह अपरिवर्तनीय, विकल्पहीन इस जीवन जीते हुए स्त्रियों ने सोचना तक बंद कर दिया था और उन्हें यह तक पता नहीं था कि 'पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं' और तभी कार्ल मार्क्स के शब्दों में 'इतिहास का माध्यम औजार' बनकर आये अंगरेज और उनकी पूरी बहुआयामी सभ्यता और संस्कृति के प्रवेश से 19वीं सदी, भारत में एक 'युगांत' और एक 'युगारंभ' की सदी बन गयी। स्त्री जागरण, स्त्री मुक्ति और स्त्री विकास के क्षेत्र में देखते-देखते एक सदी के भीतर भारत ने लगभग वे सभी मील के स्तंभ पार कर लिये जिसके लिए योरोपीय देशों को तीन-चार सदियां लगी थीं और यही भारतीय नारी के मानसिक विकास और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच बड़ी दरार की वजह है और भारतीय पुरुष की पारंपरिक मानसिकता और विद्यमान यथार्थ के बीच दरार की भी यही वजह है।

... एकाएक ध्यान गया कि राजम नटराजन पिल्लै का यह लेख तो बहुत लंबा हो रहा हैइसलिए यदि उचित प्रतिसाद मिला तो बाक़ी अंश फिर कभी