04 November, 2008

पुरुष दर्प को सहलाती आज़ाद नारी उर्फ़ आज़ादी बरकरार रखने के लिये अस्मिता को दाँव पर लगाती नारी

जैसा कि मैंने पहली पोस्ट (पुरुष दर्प को सहलाती आज़ाद नारी) में लिखा था कि यदि उचित प्रतिसाद मिला तो इस पोस्ट के बाक़ी अंश फिर कभी। क्योंकि निश्चित ही राजम नटराजन पिल्लै का यह लेख तो बहुत लंबा हो गया था। आपसे निवेदन है कि इस कड़ी के पहले की पोस्ट पर एक नज़र जरूर डालें ताकि तारतम्य बना रहे। उसी पोस्ट का अगला हिस्सा है यह अंश:

पुरुष दर्प को सहलाती आज़ाद नारी
-राजम नटराजन पिल्लै

‘अबला’ को सहायता देकर आर्थिक रूप से पराधीनता से राहत दी गयी और उसके लिये शिक्षा दीक्षा, रोज़गार मुहैया किये गये। राजनैतिक स्वतंत्रता की लड़ाई में उनकी भागीदारी अनायास हो गयी। पहली बार लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली स्वीकार करने वाले राष्ट्र ने बड़ा प्रगतिशील संविधान भी स्वीकार कर लिया और लिंग तथा जनम पर आधारित विषमतायों को घोषित रूप से गैरकानूनी बना दिया। सभी क्षेत्रों में स्त्रियों ने प्रवेश किया, कामयाब हुईं और अपनी अस्मिता को सुदृढ़ बनाती गयीं, और यहीं से समस्या उठ खड़ी हुई उनकी सार्वजनिक जीवन की, अश्लीलता की, गैर सामाजिक चरित्र की, परिवार के टूटने की। एक दिलचस्प तथ्य यह है कि पिछले दस वर्षों से स्त्री के चरित्र स्खलन की कोई बात नहीं करता और न ही समाज के अध:पतन की बात करता है, पर निश्चित है कि स्त्री की फैशनपरस्ती, चिंता और सरोकार का केंद्र है और चिंता इस बात पर है कि औरत ने अपनी अस्मिता की रक्षा के लिये आज़ादी चाही थी और अब वह आज़ादी बरकरार रखने के लिये अपनी अस्मिता को दाँव पर लगा रही है।

बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से हावी हो रहे विभिन्न क्षेत्रों के भूमंडलीकरण और दैनंदिन के जीवन को प्रभावित कर रहे बाज़ारवाद ने उपभोक्तावाद को प्रोत्साहन दिया। धन, जो किसी समय हाथ का मैल था, अब इतना महत्वपूर्ण बन गया है कि उसे पाने के लिये कितने भी मैल में धंसने के लिये लोग तैयार हैं। नीति-अनीति की दीवारें ढह गयी हैं, गलत सही की सरहदें मिट गयीं हैं। स्त्री-मुक्ति की विचारधारा के विश्वव्यापी आंदोलन ने पुरूष प्रधान विषमतामूलक समाज व्यवस्था को बदलने के लिये दशकों, सदियों से पूरी शिद्दत और ईमानदारी से प्रयास किया था, पर नव उपनिवेशवादी वैश्विक पूँजी साम्राज्य ने एक अनूठे ढ़ंग से स्त्री को मुक्त कर दिया। सर्वहारा से सर्वजयी बना दिया। अब वह स्वयं अपने को पण्य, वस्तु, ‘जिंस’ बनाने के लिये आज़ाद है। वह प्रेमचंद के उपन्यास की मज़बूर हो कर ‘दालमंडी’ में बैठने वाली नायिका नहीं रही, चतुरसेन शास्त्री की, सामाजिक व्यवस्था की शिकार ‘वैशाली’ नहीं रही। अब वह बड़े लाड़-प्यार से माता-पिता, भाई, राष्ट्रवासियों से प्रशंसित, स्वीकृतमिस वर्ल्ड’, मिस यूनिवर्सहो गयी है। स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी ने अबला भारतीय नारी को जागृत करते हुये कहा था कि उन्हें सावित्री, सीता और दयमंती को अपना आदर्श मानना चाहिये और इन स्त्रियों की महता की स्वीकृति के रूप में ही हमारे यहां लड़कियों के नाम सावित्री, सीता, दयमंती रखे जाते रहे। पर अब ये नाम दकियानूसी माने जाते हैं। अब इन दस-पंद्रह वर्षों में लड़कियों के नाम सुष्मिता, ऐश्वर्या, करिश्मा रखे जा रहे हैं।

स्त्री मुक्ति की प्रगतिशील धारा निश्चित ही इससे कुंठित हुयी है। कवि प्रतापराव कदम ने अपनी कविता ‘वह सहला रही है पुरूष दर्प’ में बहुत सटीक कहा है। सौंदर्य प्रतियोगिता में, देह बनी औरत क्या जानती है, देह के अलावा भी है, वह, … क्या जानती है ब्यूटी कॉंटेस्ट में, इतराने वाली औरत, जनमने से पहले ही ही, मारी जा रही है वह …, क्या जानती है, कुछ ही अंकों से पिछड़ने वाली औरत, सहला रही है, उसी पुरूष दर्प को, जो मानता है, वही है सृष्टि का नियता!’ लड़कियों की, स्त्रियों की फैशन-परस्ती अपने आप में चिंता का विषय नहीं होना चाहिये। भारत के लिये भीश्रंगारकोई अपूर्व घटना नहीं है। कालीदास से लेकर विद्यापति तक और फिर बिहारी, देव से लेकर पद्माकर तक, सभी रीति/ श्रंगारकालीन कवियों ने स्त्रियों के नख-शिख सौंदर्य और श्रंगार का ही वर्णन किया है। सम्पूर्ण भारतीय चित्रकला, नृत्यकला, संगीत, स्त्री की बनावट और सजावट का ही द्रुत/ विलंबित वर्णन करती है, तो फिर आधुनिक लड़कियों की साज-सज्जा, पोशाक चिंता का विषय क्यों बनना चाहिये? रही बात कम कपड़े पहनने की, तो हमारे सारे बौद्धयुगीन भित्तिचित्रों में अंकित स्त्रियां तो इनसे भी कम क्या, न्यूनतम कपड़े पहने हुए हैं।

वर्तमान लड़कियों का, स्त्रियों का बनाव-श्रंगार इसलिए आशंका और डर पैदा करता है कि वह केवल मूलभूत आवश्यकतायों की पूर्ति के लिए नहीं है, वह एक प्रदर्शन है अपनी सत्ता का, धन का, मिल्कियत का, पूँजी का। स्त्री का शरीर उसकी पूँजी है। वह अपनी पूँजी की मार्केटिंग कर रही है, वह ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफे के लिए उस एएक बाज़ार में ऊँचे से ऊँचे दामों में बिकने वाली कमोडिटी के तौर पर रख रही है। इससे भी आगे कहा जा सकता है कि आज आधुनातन फैशन के अनुरूप अपने को प्रस्तुत कर औरत, बहुआयामी खुशी अर्जित कर रही है। उसका मेकअप, उसके कपड़े, उसका मोबाईल एक स्टेटमेंट है, बयान है, वह एक घोषणा है, उसकी आज़ादी की, उसकी स्वायत्ता का, उसकी अपना स्वामी स्वयं होने की।

परम्परा की दुहाई देते हुए आँख मूंदकर मीडिया को गरियाने या फैशन मात्र को अपसंस्कृति घोषित कर देने से आशंकाओं का समाधान नहीं हो जायेगा। आशंका इस बात की है कि समाज की सर्वप्रथम बुनियादी इकाई परिवार को, यह नुकसान पहुँचाती है, उससे आगे सामाजिक अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त करती है और सबसे अहम बात कि यह एक अंतहीन ‘चूहा दौड़’ को बढ़ावा देती है, जिसमें अंतत: सभी को ‘चूहा’ ही बने रहना है। यह कहना आज तर्कसंगत नहीं लगता कि औरतों को सारे धर्म-कर्म निभाने चाहिए, यह भी कि वे ही मातृरूपा हैं, इसलिए उन्हें ही त्याग करते रहना चाहिये।

‘नारी, तुम केवल श्रद्धा हो’ यह संबोधन आज वंचना और प्रवंचना का द्योतक लगता है, इसलिए इतना ही कहना सामयिक और उपयोगी लगता है कि 21वीं सदी के संत्रास्पूर्ण वैश्विक वातावरण में अपने मानसिक संतुलन को बनाये रखना सबसे बड़ा सहारा होता है। इसलिए स्त्री को भी अस्मिता और अस्तित्व की इस अंतर्द्वंदमयी शिति में निरंतर संतुलन बनाये रखने का प्रयास करना चाहिये। फैशन निश्चित ही एक ‘घोषणा’ है, पर उसका कथ्य क्या हो? इस बारे में प्रत्येक स्त्री को, उससे संबंधित पुरूष को, छोटी से छोटी सामाजिक इकाई को, अपने विवेक और अंतर्मन को साक्षी रखकर स्वयं निर्णय करना होगा।

-राजम नटराजन पिल्लै लिखित लेख, नंदकिशोर नौटियाल जी द्वारा संपादित, साप्ताहिक पत्र 'नूतन सवेरा' में प्रकाशित। इसके सलाहकार सम्पादक डॉ कन्हैयालाल नंदन हैं।